Thursday, April 11, 2013

नेपाल भारत का ही अंग है - सोभियत संघ

नेपाल एक अलग स्वतंत्र देश है - भारत 

'वजूद की तकरार मुख-पृष्टवाली दिसम्बर महीने का हिमालिनी  देखने को मिला। 
''क्या प्रधानमंत्री को अपना 40-सूत्री कार्यक्रम याद है - जिसके नाम पर हजारो निर्दोष नेपालियों की निर्मम हत्या कर दी गर्इ शीर्षक से छपे रामाशीष जी का लेख एक सांस में पढ़ गया, मन नहीं भरा तो दूसरी और तीसरी बार भी पढ़ा। मुझे ऐसा लगता है कि उक्त लेख में संभवत: एक भारतीय पत्रकार होने के कारण प्रो. रोज के कथन को व्यक्त करने में रामशीष जी झेंप गए हैं और एक कड़वे सच पर गोबर-मिÍी डालने की कोशिश की है। ताकि, हमारे देश के ''भारत विरोघी नेपाली राष्ट्रवाद की रोटियां सेक रहे नेताओं को ''भारत के विरोध में दुष्प्रचार करने का कोर्इ नया मसाला न मिल जाए। 
इसलिए मैं इसी सन्दर्भ में अपनी आंखों देखी एक सेमिनार की चर्चा करना चाहता हूं जिसमें  नेपाली राजनीति के अमेरिकी विशेष प्रोफेसर र्इ. लियो रोज खुद उपसिथत थे और 'भारत की तथाकथित बदनीयती पर एक साथ उठाए गए दर्जनों नेपाली विद्वानों के अनेक सवालों का बिना किसी लाग-लपेट उत्तर दे रहे थे। 
घटना 1972 की है। उस वक्त भारत सहायता मिशन (इंडियन एड मिशन) के सैकड़ो इंजीनियरों तथा विशेषज्ञों द्वारा न केवल पूरब-पशिचम राजमार्ग जैसे सड़कों का निर्माण किया जा रहा था और स्कूल-कालेजों की बिलिडंग बनायी जा रही थी  बलिक नेपाल के उच्चस्तीय शिक्षण संस्थानों में भारत के दर्जनों प्रोफेसर नेपाली विधार्थियों को शिक्षा देने के कार्य में व्यस्त थे। उसी कार्यक्रम के तहतं त्रि. वि. के राजनीति शास्त्र विभाग में इंडियन एड मिशन की ओर से भारतीय प्रोफेसर डा. एच. एन. झा  नियुक्त थे तथा वह भी उक्त सेमिनार में उपसिथत थे।  
त्रिभुवन विश्वविधालय राजनीति शास्त्र विभाग के तत्वावधान में विश्वविधालय सभागार में आयोजित उक्त सेमिनार मेें नेपाली राजनीति के जाने-माने अमेरिकी विशेषज्ञ प्रोफेसर इ. लियो रोज मुख्य अतिथि थे। जमाना नेपाल में स्थापित बहुदलीय संसदीय प्रजातंत्र के हत्यारे राजा महेन्द्र का था जब दो-तिहार्इ बहुमत प्राप्त नेपाली कांग्रेस की निर्वाचित सरकार को राजा महेन्द्र ने शाही सेना की ताकत से बर्खास्त कर दिया था, राजनीतिक पार्टियों पर सदा-सदा के लिए पाबंदी लगा दी थी, आज के कम्युनिस्ट भी राजा का जय-जयगान कर रहे थे और दूसरी ओर राजा महेन्द्र के कदम के विरोध करनेवालों को 'अराष्ट्रीय तत्व घोषित कर दिया गया था। हजारो प्रजातंत्रवादियों तथा राजनीतिककर्मियों ने भारत में शरण ले ली थी। इसके साथ ही राजा और राजदरबार के सिपहसालारों द्वारा नेपाल के उक्त 'अराष्ट्रीय तत्वों को शरण का आरोप लगाते हुए लोकतांत्रिक देश 'भारत को आज के माओवादी-कम्युनिस्टों की तरह ही अघोषित रूप में 'दुश्मन नं. 1 मान लिया गया था। उस माहौल में स्कूलों से लेकर यूनिवर्सिटी तक के हर     'बुद्धिजीवीं तथा 'जागरूक विधार्थियों के मुंह से 'राजा महेन्द्र जिन्दावाद - भारत मुर्दावाद' नारा सुना जाता था। उसी माहौल में आयोजित उक्त सेमिनार के प्रारंभ में ही राजा तथा     राजदरबार के सिपहसालाराें 'विद्वानों ने प्रो. रोज से प्रश्नों की झरी लगा दी और  एक साथ कहना शुरू किया - 
प्रश्न : नेपाल के प्रति भारत की नीति सदा ही बदनीयतीपूर्ण रही है और वह एन-केन-प्रकारेण, नेपाल को हड़पना चाहा है - इसके बारे में आपका क्या    कहना है ?
इन प्रश्नों से प्रो. रोज एक क्षण के लिए स्तब्ध हुए लेकिन तुरंत बाद उन्होंने      राजा के सिपहसालार विद्वानों से प्रतिप्रश्न कर डाला - 'तो इसमें भारत के लिए बाधाएं क्या थीं ? अड़चन कहां था ? यदि भारत की नीयत ही खराब थी तो उसमें उसे कठिनार्इ किस बात की थी ? 
इस पर सभी प्रश्नकर्ता हक्का-बक्का रह गए। कहीं से कोर्इ आवाज तक नहीं आयी। तब प्रोफेसर रोज ने कहना शुरू किया यदि भारत की नीयत खराब होती तो वह सन 1950 में पूरे परिवार के साथ दिल्ली में शरण लिए नेपाली राजा त्रिभुवन से कोर्इ भी समझौता कर सकता था। वह तत्कालीन राणा शासकों से भी  ले-देकर कोर्इ संधि कर, करा सकता था। लेकिन, भारत ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। इसलिए आपलोगों का यह कहना कदापि उचित नहीं।  
इसके बाद प्रोफेसर रोज ने बताया कि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री तथा 'शानित-दूत के नाम से विश्वविख्यात पंडित जवाहर लाल नेहरू, प्रजातंत्र की स्थापना के बाद से ही नेपाल को एक समृद्ध तथा मजबूत पड़ोसी देश के रूप देखना चाहते थे। यदि ऐसा नहीं होता तो पंडित नेहरू ने जब राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने के लिए नेपाल के आवेदन को 'संयुक्त राष्ट्रसंघ की सभा में इन्ट्रोडयूस (पेश) किया, तो तत्कालीन सोवियत संघ ने यह कहते हुए उसे रिजेक्ट(नामंजूर) कर दिया कि 'चूंकि नेपाल, भारत का ही एक अंग है, इसलिए उसे यू एन ओ की सदस्यता नहीं दी जा सकती। सोवियत संघ ने ऐसा कहते हुए अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए उस आवेदन के प्रवेश पर वीटो लगा दिया जिस कारण नेपाल के आवेदन पर विचार भी नहीं किया जा सका। यही नहीं, पंडित नेहरू ने जब कुछ दिनों के बाद उक्त आवेदन को  फिर पेश किया तो दूसरी बार भी सोवियत संघ ने वीटो किया। जिस कारण नेपाल को यू एन की सदस्यता तो दूर, नेपाल के आवेदन पर विचार किए जाने पर भी पाबंदी लगा दी गर्इ। तीसरे बार नेपाल के आवेदन पर से वीटो हटवाने में पंडित नेहरू को तब सफलता मिली जब वह सोवियत संघ के तत्कालीन नेताओं बुलगनिन और ख्रुश्चेव को मनाने में सफल हुए और वीटो नहीं लगाने के लिए उन्हें राजी कर लिया। इस जद्दोजेहद के बाद ही भारत के प्रयास से नेपाल, यू एन ओ का सदस्य बन सका।
इसी तथ्य को प्रो. रोज ने अपनी पुस्तक 'डेमोक्रैटिक इनोभेसन्स इन नेपाल में लिखा जिसे पढ़ने का भी मुझे अवसर मिला था। उस समय मैं त्रिभुवन  विश्वविधालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में एक विधार्थी था, इसी के नाते मैं भी उक्त सेमिनार में एक श्रोता था। इंडियन एडमिशन के शिक्षा सहयोग कार्यक्रम के तहत भारत से आए प्रो. एच. एन. झा जैसे प्रकाण्ड विद्वान मेरे गुरू थे। 
मैं हिमालिनी में प्रकाशित लेख के लेखक, रामाशीष जी को इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने चाहे छुपे-रूश्तम ही क्यों न सही, प्रो. रोज के शब्दों की मनसा को यह कहकर व्यक्त किया है कि ''सोवियत संघ ने एक विशेष संवेदनशील सिथति में सदस्यता के लिए प्रस्तुत नेपाल के आवेदन को वीटो कर दिया था। वास्तव में सत्य कटु होता है जिसे बिरले ही बर्दाश्त कर सकते हैं, महसूस कर पाते हैं। 
इन दिनों सन 1950 की संधि खारिज करो का नारा तो नहीे  लग रहा है लेकिन सत्ता पर बैठे तथा सत्ता से बाहर रह रहे कम्युनिस्ट कांग्रेस नेताओं के जेहन से सन पचास की संधि का भूत अभी तक हटा नहीं है। मैं रामाशीष जी के एक और छुपे हुए सवाल को यहां उजागर करना चाहता हैं कि आखिर नेपाल, आज भी क्यों नहीं सन पचास की संधि खारिज करने की नोटिस भारत को देता है ? यह अच्छा मौका है, नेपाली नेताओं को हिम्मत दिखाना चाहिए लेकिन उन्हें इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि यदि भारत ने अपनी भूमि से 87 लाख नेपालियों को नेपाल लौटने पर विवश कर दिया तो क्या उस सिथति को नेपाल के शासक झेल सकेंगे ? कुछ समय के लिए मान भी लें कि भारत सरकार ऐसा कुछ भी नहीं करेगी लेकिन नेपाली नेताओं की अपमानजनक उकसाहट में यदि भारत की किसी पार्टी ने इसे मुÍा बना   लिया या भारतीय जनता ही संगठित रूप में प्रतिकार पर उतर आयी, तो   क्या होगा ? क्या हमारे देश के शासकों के पास इन संभावित आपदाओं से निकटने का कोर्इ कार्यक्रम है ? हमारी चिन्ता इसलिए भी बढ़ जाती है कि यदि ऐसा हुआ तो, हम तरार्इ मधेश के लोगों को ही उसका परिणाम सबसे पहले भोगना पड़ेगा। क्या हमें उस संकट से बचाने का कोर्इ उपाय सरकार के पास है ? नेपाल के शासक इसे समय रहते स्पष्ट करे और राजा महेन्द्र द्वारा डाले गए भारत-विरोधी-नेपाली राष्ट्रवाद की नीव को उखाड़ फेंके अन्यथा नेपाल की धरती पर जारी भारत हितविरोधी 'चीन-पाकिस्तान गतिविधियों के जबाब में भारत सरकार नहीं तो भारतीय जनता कभी भी सड़कों पर आ सकती है जिस हम तरार्इ मधेश के निवासी भांप रहे हैं। धन्यवाद !
(इति)

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